सोमवार, 12 जनवरी 2009

Letter to the Prime Minister from TV Editors

12th January 2009


Mr. Manmohan Singh,
The Prime Minister of India.

Dear Manmohan Singhji,

We are sure you are aware that the proposed measures to gag the electronic media have caused immense disquiet in the journalistic fraternity and amongst all those who believe in the freedom of expression.

As editors, we believe that the media is the watchdog to keep democracy and democratic principles alive. If instruments of the state begin to regulate us, the damage to democracy and all stakeholders in democracy would be irreparable. It is all the more surprising that this is happening when you are directly holding charge of the ministry of Information and Broadcasting.

We are aware that our right to keep a vigil also brings with it a responsibility to function according to the highest standards of ethics and national interest. We firmly believe that in a democracy media needs self-regulation and not regulation. The electronic media fraternity has already made significant movement in this direction. In view of this, we urge you to immediately suspend the proposed measures.

We would like to personally meet and impress upon you the historical blunder that these measures would be. They would for all times taint this government as one that tried to impose draconian measures on media and forever remind us that the emergency is not yet a closed chapter in this country.

Hoping for an appointment at the earliest.


Best regards
1. Ajit Anjum, News 24
2. Arnab Goswami, Times Now
3. Ashutosh, IBN 7
4. Barkha Dutt, NDTV 24X7
5. Deepak Chaurasia, Star News
6. Milind Khandekar, Star News
7. N K Singh, ETV
8. Pankaj Pachauri, NDTV India
9. QW Naqwi, Aaj Tak
10. Rajdeep Sardesai, CNN IBN
11. Satish K Singh, Zee News
12. Shazi Zaman, Star News
13. Supriya Prasad, News 24
14. Vinay Tiwari, CNN IBN
15. Vinod Kapri, India TV

1 टिप्पणी:

रीतेश ने कहा…

ऐसा लगता है कि मुंबई हमलों ने सरकार को अपने गिरेबां में झांकने से ज्यादा दूसरों का कॉलर पकड़ने का मौका दे दिया है. सरकार चाहती है कि मीडिया ऐसी किसी वारदात या ऐसी कोई भी वारदात जिसे वो राष्ट्रीय हित के दायरे में बता दे, उसे न दिखाए या उसके बारे में दर्शकों को पूरा सच न दिखाए या सच का वही हिस्सा दिखाए जो सरकार चाहती है.

मीडिया में किसी भी हैसियत में काम कर रहे लोग संसद से लेकर चौक-चौराहों तक बहस करने वालों से किसी भी सूरत में कम देशभक्त नहीं हैं. देश की चिंता करने का ठेका देश की जनता ने वोट-गणित के चंद खिलाड़ियों को नहीं दे दिया है. मीडिया में वो लोग हैं जो देश की चिंता कानून बनाने वाले बहुतेरे लोगों से ज्यादा करते हैं.

यही वजह है कि मुंबई हमलों के कवरेज में कुछ खामियां सामने आने के बाद न्यूज चैनलों की संस्था न्यूज ब्रॉडकॉस्टर्स एसोसिएशन ने खुद पहल करके तमाम चैनलों के लिए दिशा-निर्देश बनाए और उस पर अमल करना शुरू कर दिया. उसने सरकार के संदेश का इंतजार नहीं किया. हां, सरकार चला रहे कई नेताओं ने थू-थू करवाने के बाद ही इस्तीफा दिया. एनबीए के निर्देशों में ये बहुत साफ है कि राष्ट्रीय हित के मामलों में, आतंकी हमलों के दौरान, दंगों के दौरान या ऐसी ही किसी वारदात के दौरान समाचार चैनल क्या दिखाएंगे और क्या नहीं दिखाएंगे. अगर दिखाएंगे तो उसका तरीका क्या होगा, कितनी बार दिखाएंगे.

अब इसके बाद सरकार या किसी रेगुलेटर के लिए करने की खातिर कुछ नहीं बचा है. किसी गंभीर संकट के दौरान किस तरह से खबरें दिखानी है, यह खबर दिखाने वालों ने ही तय कर लिया है और सबने मिलकर खुद से तय किया है इसलिए इसके उल्लंघन की गुंजाइश भी नहीं है. अब ऐसे में सरकार और क्या करना चाहती है. सरकार की मंशा पर इससे भी सवाल पैदा होता है.

समाचार की दुनिया में अलग-अलग अखबारों और समाचार चैनलों के होने का मतलब ही तो यही है कि आप अलग-अलग संपादकों के नजरिए से अलग-अलग खबरें देखते हैं. खबरों में विविधता होती है. एक चैनल कलकत्ता की खबर दिखा रहा होता है तो दूसरा नागपुर का. एक चैनल किसी पार्टी के अध्यक्ष को घूस लेते दिखाता है तो दूसरा किसी पार्टी के सांसद को सवाल पूछने के लिए पैसा लेते दिखाता है. एक चैनल अगर ये बताता है कि सांसद योजना के काम के लिए ठेकेदार से कमीशन लिया जाता है तो दूसरा चैनल ये दिखाता है कि हथियारों की खरीद में भी कमीशन मांगा जा रहा है. जिन चैनलों पर ऐसी खबरें चल रही हैं और आगे भी चल सकती हैं, उन्हें अपने ढर्रे पर लाने के लिए सरकार ने ये नया बहाना तलाशा है. ऐसी खबरें डीडी न्यूज पर तो कभी नहीं चल सकतीं जिसका पूरा बुलेटिन ही शास्त्री भवन से तय होता है.

अगर सरकार की किसी भी व्यवस्था के कारण चैनलों को उसकी मंजूरी वाले फुटेज दिखाने पड़े तो सारे चैनलों पर एक ही चीज नजर आएगी. बड़ी वारदातों के दौरान भी घटना की कवरेज ऐसी होगी कि लगेगा किसी ने प्रेस कांफ्रेंस करके डीवीडी बांट दी है. सरकार के लिए ये मुफीद है कि गंभीर खबरों को दिखाने के नियम-कायदे ऐसे बना दो कि मीडिया वाले उस खबर की ओर झांकने का मतलब झमेला समझने लगें. उन्हें लगे कि खबर दिखाकर झंझट मोल लेने से अच्छा है कि तमाशा दिखा लो.

हाल के दिनों में मीडिया के आक्रामक तेवर को लेकर सरकारी चिंता इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि एक या दो चैनल को छोड़कर तमाम समाचार चैनल अब खबरों पर टूट रहे हैं. खबरों की लड़ाई में नेता नंगे हो रहे हैं, अफसर नंगे हो रहे हैं. देश के गृहमंत्री का दिल्ली में मातम के दौरान कपड़े बदलना सबके सामने आ रहा है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का एक फिल्मकार को लेकर आतंकी वारदात का मुआयना करना सबको नजर आ रहा है.

सरकार चाहती है कि खबरों को दिखाने के लिए इतने पेंच बना दिए जाएं कि उन पेंचों से होकर निकलते-निकलते खबर एक वंदना बन जाए. सरकार के इस खेल को बेनकाब करना और उसे नाकाम करना सिर्फ मीडिया ही नहीं, आम लोगों का भी काम है क्योंकि मीडिया के ऊपर सरकार की भृकुटि जनता के मुद्दों, भ्रष्टाचार के मामलों को सामने लाने के कारण ही तनी है. मीडिया की आजादी में कोई भी दखल या कटौती जनता के अधिकार में सेंधमारी होगी. लोकतंत्र किसी को भी किसी के अधिकार पर हमले की इजाजत नहीं देता. इस सरकार के लिए आदर्श देश अमेरिका में भी नहीं.