अपनी ज़रूरत और सुविधा के मुताबिक फतवा खरीदा जा सकता है! संसद में सवाल पूछने और काम करवाने के लिए सांसद दोनों हाथों नोट बटोर सकते हैं! किसी बेगुनाह को मारने के लिए पुलिस वाले सुपारी ले सकते हैं और उस बेरहम कत्ल को बड़ी सहजता से एनकाउंटर का नाम दे सकते हैं! मेटरनिटी होम के डॉक्टर बच्चों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं! अनाथालयों में पल रहे मासूमों को खरीदकर गुनाह के रास्ते पर धकेला जा सकता है! इतना ही नहीं एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष कैमरे पर दिन-दहाड़े रिश्वत लेते हुए नज़र भी आ सकते हैं।
आपको इन तस्वीरों की याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। पिछले कई बरसों में टीवी चैनलों पर ये तस्वीरें आपने अनगिनत बार देखी होंगी। इन ख़बरों ने देश को हिलाया था और सच परदा हटाया था। टीवी पत्रकार होने के नाते हमें इन ख़बरों पर नाज हैं। लेकिन ये ख़बरे हमारे जेहन में अचानक इसलिए बार-बार कौंध रही हैं क्योंकि न्यूज़ चैनलों के ख़िलाफ सत्ता के गलियारे में एक ख़तरनाक खेल चल रहा है। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद टीवी चैनलों को बदनाम करने की सुनियोजित साजिश के तहत बकायदा एक अभियान चलाया रहा है। सरकारी हलकों से कंटेंट कोड की खुसफुसाहट लगातार सुनाई दे रही है। वही कोड जिसका मकसद पत्रकारिता की धार को पूरी तरह कुंद करना है और न्यूज़ चैनलों पर नकेल डालकर उन्हे पालतू बनाना है। कंटेंट कोड एक बेहद ख़तरनाक साजिश है और आंख मूंदकर इसका समर्थन करने से पहले ये समझ लेना चाहिए कि मीडिया और पूरे देश पर इसका असर क्या होगा।
निरंकुश सत्ता हमेशा ख़तरनाक होती है। निरंकुशता चाहे सरकार की हो, न्यायपालिका या फिर मीडिया की, वो अच्छी नहीं है। इतना हम भी समझते हैं कि किसी भी सभ्य समाज में मीडिया के लिए भी कोई ना कोई लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। लेकिन बड़ा सवाल है-- ये लक्ष्मण रेखा कौन खीचेगा। हम बचपन से पढ़ते आये हैं कि लोकहित में सरकार के हर कदम पर नज़र रखना मीडिया की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र की ये एक बुनियादी शर्त है। लेकिन कंटेट कोड के ज़रिये उल्टी गंगा बहाने की तैयारी है। यानी मीडिया सरकार पर नहीं बल्कि सरकार मीडिया पर नज़र रखेगी। जब सरकार ये तय करने लगेगी कि पब्लिक इंट्रेस्ट क्या है, तो फिर तमाम चैनल दूरदर्शन जैसे बन जाएंगे। क्या पब्लिक कभी ये चाहेगी कि इस देश के सारे चैनल दूरदर्शन मार्का हो जायें।मैं दूरदर्शन जैसे सरकारी प्रसारण तंत्र के ख़िलाफ इसलिए नहीं हूं कि वो नीरस और उबाउ है, बल्कि असल में दूरदर्शन जनता के प्रति बिल्कुल भी उत्तरदायी नहीं है, जैसा कि इसे बताया जाता है।
मैं टीवी पत्रकारिता से जुड़े कुछ लोगों की सरकारी अधिकारियों से मुलाकात का एक दिलचस्प वाकया पेश करना चाहूंगा। इस मुलाकात में कुछ अधिकारियों ने ये शंका जाहिर की कि अपने काम करने के अंदाज़ से न्यूज़ चैनल दंगा करवा सकते हैं। इस पर मेरे एक पत्रकार मित्र ने जवाब दिया है-- ये क्षमता सिर्फ एक ही चैनल में है और वो है- दूरदर्शन। अपनी इस क्षमता का नमूना दूरदर्शन ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के कवरेज़ में पेश कर दी थी, जब भयंकर सिख विरोधी दंगे भड़के थे। ज़ाहिर है, जब सत्ता से जुड़े ऐसी समझ वाले लोग हमारी निगरानी करेंगे तो फिर उनपर नज़र कौन रखेगा।
हमें अपनी कमजोरियों का पता है। इसलिए न्यूज़ चैनलों ने सेल्फ रेगुलेशन की व्यवस्था बनाई है। कंधार विमान अपहरण कांड जैसे ही खत्म हुआ सरकार ने मीडिया को संयम बरतने के लिए धन्यवाद दिया। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ उससे हमारे प्रति सरकार का नज़रिया बदल गया। क्या इसकी वजह ये थी कि न्यूज़ चैनल जनता के आक्रोश को सामने लाने का मंच बन गये? मुझे इसमें शक है। सच तो ये है कि पब्लिक के गुस्से की कहानी जब मीडिया के ज़रिये सामने आई और ये साफ हो गया कि पूरा तंत्र अपने नागरिकों की हिफाजत में नाकाम है, तो सरकार बुरी तरह हिल गई। जब हुक्मरान और सियासतदां हिले तो ऐसे-ऐसे बचकाने बयान सामने आये जो पहले कभी नहीं सुने गये। बतौर बानगी.. `ये लिपिस्टिक लाली लगाकर हमारी बहने प्रदर्शन करती हैं'--
इस तरह के बयान सत्ता और राजनीतिक तंत्र की नाकामी के अभूतपूर्व नमूने थे। 24 घंटे चलने वाले हमारे न्यूज़ चैनलों ने इन बयानों पर नेताओं की बखिया उधेड़कर रख दी।
26 नवंबर के आतंकवादी हमले के बाद सरकार ने चैनलों को सुझाव दिया कि वो इसके असर को दबा दें। क्या ये जनता के सच जानने, देखने और समझने के अधिकार का हनन था? हमने भी ये महसूस किया कि मुंबई वारदात की कवरेज़ से जुड़ी तस्वीरे दिखाने से पहले उन्हे आम आदमी की संवेदनशीलता की कसौटी पर कसा जाना चाहिए था। लेकिन क्या ये सरकार तय करेगी कि आम आदमी की संवेदनशीलता कैसी और कितनी होनी चाहिए? क्या हम सुरक्षा में हुई ऐतिहासिक चूक की वो तस्वीर हमेशा के लिए मिटा दें जो एक अरब लोगों के दिलो-दिमाग़ में कैद हो चुकी हैं। या फिर हम ये तय करे कि 26-11 को हम कभी नहीं भूलेंगे और ऐसी घटनाओं की पुनरावृति नहीं होने देंगे।
अगर सरकार ने न्यूज़ चैनलों पर कंटेट कोड लागू कर दिया तो आप वो तस्वीरे और ख़बरें नहीं देख पाएंगे जिनका जिक्र मैंने अपने लेख की शुरुआत में किया था। समझा जा सकता है कि कंटेट कोड के क्या नतीजे होंगे और इससे क्या हासिल होगा। (शाज़ी जमां स्टार न्यूज़ के संपादक हैं)
सोमवार, 12 जनवरी 2009
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1 टिप्पणी:
'कंधार विमान अपहरण कांड' जैसे ही खत्म हुआ सरकार ने मीडिया को संयम बरतने के लिए धन्यवाद दिया। लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ उससे हमारे प्रति सरकार का नज़रिया बदल गया। क्या इसकी वजह ये थी कि न्यूज़ चैनल जनता के आक्रोश को सामने लाने का मंच बन गये? मुझे इसमें शक है। सच तो ये है कि पब्लिक के गुस्से की कहानी जब मीडिया के ज़रिये सामने आई और ये साफ हो गया कि पूरा तंत्र अपने नागरिकों की हिफाजत में नाकाम है, तो सरकार बुरी तरह हिल गई। जब हुक्मरान और सियासतदां हिले तो ऐसे-ऐसे बचकाने बयान सामने आये जो पहले कभी नहीं सुने गये। बतौर बानगी.. `ये लिपिस्टिक लाली लगाकर हमारी बहने प्रदर्शन करती हैं'--
ये मुंबई आंतकी हमला था जनाब
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