सेंसर का नाम आपने बहुत दिनों से नही सुना , लेकिन इस सरकार के इरादे ठीक नही लगते अभी सिर्फ़ टीवी को रेगुलेट करने के नाम पर कानून बनाने की बात हो रही हैं। कानून का मतलब ये हुआ कि सिर्फ़ मुंबई जैसे हमले ही नही बल्कि गुजरात जैसे दंगो का कवरेज भी वैसे ही होगा जैसे सरकार चाहेगी। न तो हम अमरनाथ का आन्दोलन टीवी पर देख पाएंगे न ही पुलिस के जुल्म की तस्वीरें क्योंकि नेशनल इंटरेस्ट के नाम पर कुछ भी रोका जा सकता हैं । नेशनल इंटरेस्ट वो सरकार तय करेगी जो मुंबई में हमला नही रोक सकी।बात अगर टीवी से शुरू हुई हैं तो प्रिंट और इन्टरनेट तक भी जायेगी। अभी नही जागे तो बहुत देर हो जायेगी
(मिलिंद खांडेकर स्टार न्यूज़ के मेनेजिंग एडिटर हैं)
http://www।hindustantimes.com/StoryPage/StoryPage.aspx?sectionName=HomePage&id=94263702-c6bb-408f-95ae-b1bc9a3461e3&&Headline=Return+of+the+Censor
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15 टिप्पणियां:
congress party ko chunav se pahle emergency yaad aa rahi hain, inko rokna padege
सरकार का इरादा टीवी चैनलों को रेगुलेट करना नहीं उन्हें अपने काबू में करना है ताकि कभी को ऐसी खबर जिससे सरकार की सेहत पर असर पड़े, चैनलों पर न चल पाए। अगर टीवी न्यूज चैनलों से मुंबई हमलों के दौरान कोई चूक हुई तो उसे सुधारने के लिए और भविष्य में ऐसी चूक न हो इसके लिए एनबीए ने अपनी गाइडलाइन जारी कर दी है। सभी न्यूज चैनलों के संपादकों के साथ बातचीत करने के बाद एनबीए आथारिटी के चेयरमैन जस्टिस जे एस वर्मा ने सेल्फ रेगुलेशन का ये गाइडलाइन लागू कर दिया है। फिर भी सरकार चैनलों सेंसरशिप की तैयारी कर रही है। ये मीडिया का गला घोंटने की कोशिश है। इसे नहीं मंजूर किया जाना चाहिए और जिस हद तक मुमकिन हो इसका विरोध किया जाना चाहिए,वरना वो दिन दूर नहीं जब कोई सरकारी बाबू और अफसर नेशनल इंट्रेस्ट के नाम पर किसी भी न्यूज चैनल की नकेल कसने में जुट जाएगा। फिर कभी भी गुजरात दंगों के दौरान जैसी रिपोर्टिंग आप सबने टीवी चैनलों पर देखी है ,नहीं देख पाएंगे। कभी भी सरकार या सरकारी तंत्र की नाकामी के खिलाफ जनता अगर सड़क पर उतरी और उसकी खबर को तवज्जो दी गयी तो उसे नेशनल इंट्रेस्ट के खिलाफ मानकर चैनल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर दी जाएगी।
हर सूबे और हर जिले का अफसर अपने -अपने ढंग से नेशनल इंट्रेस्ट को परिभाषित करेगा और अपने ढंग से इस्तेमाल करके मीडिया का गला घोंटेगा ।
सरकार का इरादा टीवी चैनलों को रेगुलेट करना नहीं उन्हें अपने काबू में करना है ताकि कभी को ऐसी खबर जिससे सरकार की सेहत पर असर पड़े, चैनलों पर न चल पाए। अगर टीवी न्यूज चैनलों से मुंबई हमलों के दौरान कोई चूक हुई तो उसे सुधारने के लिए और भविष्य में ऐसी चूक न हो इसके लिए एनबीए ने अपनी गाइडलाइन जारी कर दी है। सभी न्यूज चैनलों के संपादकों के साथ बातचीत करने के बाद एनबीए आथारिटी के चेयरमैन जस्टिस जे एस वर्मा ने सेल्फ रेगुलेशन का ये गाइडलाइन लागू कर दिया है। फिर भी सरकार चैनलों सेंसरशिप की तैयारी कर रही है। ये मीडिया का गला घोंटने की कोशिश है। इसे नहीं मंजूर किया जाना चाहिए और जिस हद तक मुमकिन हो इसका विरोध किया जाना चाहिए,वरना वो दिन दूर नहीं जब कोई सरकारी बाबू और अफसर नेशनल इंट्रेस्ट के नाम पर किसी भी न्यूज चैनल की नकेल कसने में जुट जाएगा। फिर कभी भी गुजरात दंगों के दौरान जैसी रिपोर्टिंग आप सबने टीवी चैनलों पर देखी है ,नहीं देख पाएंगे। कभी भी सरकार या सरकारी तंत्र की नाकामी के खिलाफ जनता अगर सड़क पर उतरी और उसकी खबर को तवज्जो दी गयी तो उसे नेशनल इंट्रेस्ट के खिलाफ मानकर चैनल के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर दी जाएगी।
हर सूबे और हर जिले का अफसर अपने -अपने ढंग से नेशनल इंट्रेस्ट को परिभाषित करेगा और अपने ढंग से इस्तेमाल करके मीडिया का गला घोंटेगा ।
- सबसे बड़ा सवाल यहां ये है कि टीवी चैनल क्या दिखाएं, क्या ये सरकार तय कर सकती है? अगर नहीं तो फिर चुनाव से ठीक पहले इस तरह की सोच क्यों? टीवी चैनलों में उछलने के बाद ही सरकार बार-बार किसी भी मामले में वो सब कुछ करने में कामयाब होती है जो उसकी जिम्मेदारी होती है - चाहे वो आतंकवाद का मुद्दा ही क्यों न हो । ऐसे में टीवी चैनलों की आवाज को दबाना अपने पैर में चोट करने जैसा होगा। इससे सरकार को पूरी तरह से बचना चाहिए।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अपने प्लस.. माइनस हैं। किसी भी पॉवर पोस्ट पर बैठने वालों में अगर आज खौफ है तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है, अगर आज देश का कोई भी नामी चेहरा बिना सोचे समझे बोलते डरता है तो तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है, अगर जेसिका, नीतिश कटारा, शेखर तिवारी, नोएडा रेप केस जैसे तमाम मामलों में त्वरित कार्यवाही की बात हो या फिर पब्लिक मूवमेंट बनाने की, अगर ये सब होने लगा है तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। अब अगर कोई सीएम किसी फिल्ममेकर को किसी संवेदनशील जगह पर घुमाने से परहेज करेगा तो तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। अगर आज किसी बच्ची के इलाज के लिए बिग बी के हाथ आगे बढ़ते हैं या फिर सेलेब्रिटीज किसी सोशल कॉज पर खुलकर सामने आते हैं तो काफी कुछ वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। अगर टैरर अटैक के वक्त मुंबई के बाकी हिस्सों में लोग निश्चिंत थे और देश भर के लोगौ के पल पल की खबर मिल रही थी तो तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। अगर संसद में बैठे माननीयों को भी सवाल पूछते या सांसद निधि का मनमाना इस्तेमाल करते वक्त डर लगने लगा है तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। जेट एयरवेज को बैकफुट पर आना पडता है तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है।
ऑपरेशन माया, कलंक, फतवा बिकता है, चक्रव्यूह, गद्दार जैसे स्टिंग ऑपरेशंस के जरिए तमाम क्षेत्रों के मठाधीशों की असलियत सामने लाकर बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया है तो वजह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है......
लेकिन अगर आज सडक पर कैमरे को देखकर कोई भी अपने ऊपर तेल लगाकर आग लगा लेता है या फिर कोई सरफिरा संजय दत्त की गाडी पर चढ जाता है, या फिर कभी भी कोई ज्योतिषी अपने मरने की तारीख का ऐलान करके मजमा जुटा लेता है, कोई बैकस्टेज डांसर जाहनवी अभिषेक बच्चन की शादी पर उसकी बीवी होने का नाटक करती है, आरुषि के कत्ल जैसी घटनाओं के वक्त अतिरिक्त जोश में न केवल उसका फर्जी एमएमएस जैसी घटनाएं सामने आती है, बल्कि एक ग्लेमरस स्टोरी पर बने रहने की मजबूरी के चलते ढेर सारी बडी खबरों का गला घोंट दिया जाता है या फिर टैरर अटैक के वक्त अतिरिक्त जोश के चलते तमाम परेशानिय़ां आती हैं तो उसकी वजह भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है। बावजूद इसके...... हमें सरकारी दखल मंजूरी नहीं, वजह सभी जानते हैं। हमें सेल्फ रेग्यूलेशन के सिस्टम को और मजबूत करना होगा, ताकि जितने माइनस मैने गिनाएं हैं उनको कम से कम किया जा सके। ऐसी सभी घटनाओं के वक्त ऐसे चैनल्स को स्ट्रॉंग मैसेज दिया जा सके।
विष्णु शर्मा
..in the name of national interest it is clearly a move to dictate ..take over the content and push the interests of the ruling party...riot situations to people revolting on the street...a godhra or a candle march ...they wil decide what we see and what we dont... jus as they push in this one leg ...lets join hands and keep them out coz by the feel of it they are ready to barge right in ..
if govt. is talking about media censorship and define media limitations on the basis of national interest than i just have a question whether govt. itself is clear about national interest... and i m not saying it without ne fact... i have a perfect example of that... in 2006 govt passed a bill for sports where they said that they will telecast all cricket matches live which are of national interest and later on we find only one day and 20-20 matches on dd national coz that gives them more revenue than test matches... so this clearly defines what exactly defines national interest for govt..... govt only sees national interest where they find benefit for themselves... so when govt can change national interest according to their own conveinece than how much transparency we can xpect from them... so no media regulation is required as we all know how to regulate ourselves and we already started the process through NBA...
..in the name of national interest it is clearly a move to dictate ..take over the content and push the interests of the ruling party...riot situations to people revolting on the street...a godhra or a candle march ...they wil decide what we see and what we dont... jus as they push in this one leg ...lets join hands and keep them out coz by the feel of it they are ready to barge right in ..
दरअसर सरकार लोकतंत्र का गला घोटना चाहती है।
प्रेस की आजादी पर हमला-सतीश के सिंह
आजाद भारत के इतिहास में प्रेस की आजादी पर इससे बड़ा अंकुश लगाने की, इससे बड़ी कोशिश कभी नहीं हुई। सरकार न सिर्फ टीवी बल्कि प्रिंट और वेब मीडिया पर भी अपना अंकुश लगाना चाहती है। सरकार की ये कोशिश किसी मीडिया सेंसरशिप से कम नहीं है। प्रेस के लिए बाकायदा कानून हैं। अगर कोई विवाद की स्थिति होती है तो संस्था और पत्रकारों पर मुकदमे चलते ही हैं, लेकिन सरकार अब जो करने की कोशिश कर रही है वो प्रेस की आजादी पर हमला है, फंडामेंटल राइट्स के खिलाफ है।
(सतीश के सिंह जी न्यूज के एडिटर हैं)
पाक मीडिया हमसे ज्यादा आजादः विनोद कापड़ी
-सबसे ब़ड़ा सवाल ये है कि सरकार पर नजर रखने के लिए मीडिया बनी है या मीडिया पर नजर रखने के लिए सरकार बनी है। मीडिया का काम ही यही है कि वो सरकार पर नजर रखे, जनता की बात जनता तक पहुंचाए, सरकार को बताए कि वो ये गलत कर रही है। लेकिन यहां तो स्थिति बिल्कुल उलटी हो चुकी है। सरकार मीडिया को बता रही है कि ये गलत है और ये सही है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। आप पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की हालत देखिए। कितनी अराजकता है, लोकतंत्र नाम की चीज नहीं है, लेकिन वहां का मीडिया हमसे ज्यादा आजाद है। हमारी सरकार को क्या ये नहीं दिखाई देता। मीडिया पर सेंसरशिप का सरकारी ख्याल कतई लोकतांत्रिक नहीं है। ये प्रेस की आजादी पर हमला है।
(विनोद कापड़ी इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर हैं)
मैंने स्कूल के दिनों में पढ़ा था...लोकतंत्र के तीन खंभे होते हैं...विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका..बाद के दिनों में इस जानकारी में संशोधन हुआ और हमें पता चला कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है और इत्तेफाक से बाद में मैं खुद भी मीडिया से जुड़कर लोकतंत्र के चौथे खंभे का हिस्सा बन गया। लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने में इन सभी खंभों का बराबर का योगदान है...अगर हम कहें कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस यानी मीडिया लोकतंत्र की चार संताने हैं ...लोकतंत्र के प्रति सबकी बराबर की जवाबदेही और जिम्मेदारी है और इनमें से कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है..इन सभी के लिए यदि लोकतंत्र पिता समान है और कानून इनकी मां है..इन्हें नियंत्रित करना भी लोकतंत्र (पिता) और कानून (मां) की जिम्मेदारी है ...लेकिन पिछले कुछ समय से लोकतंत्र के पहले खंभे ने एक बार फिर से खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरुआ घोषित करने की कोशिशें तेज कर दी है.. ये पहला मौका नहीं जब ऐसी कोशिश हो रही है...इससे पहले भी सात-आठ के दशक में बिहार के तब के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने अखबारों पर अंकुश लगाने की इसी तरह ऐसी कोशिश की थी और इतिहास जानता है उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी। उन्हें जब तक मीडिया और अखबारों की ताकत का अहसास हुआ तब तक काफी देर हो चुकी थी और इस लड़ाई में हार के बाद उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी अच्छे दिन नहीं देखे। मीडिया ने ही नहीं लोगों ने भी उन्हें अपनी नजरों से उतार दिया.. हालांकि बाद के दिनों में उन्होंने एक अखबार के प्रकाशन को में पिछले दरवाजे से सहयोग कर अपनी पुरानी ताकत वापस पाने की कोशिश की लेकिन ना तो वो अखबार जनता का हमदर्द बन पाया और ना ही जगन्नाथ मिश्र को जनता ने अपना हमदर्द बनाया ।
जगन्नाथ मिश्र के राजनीतिक और सामाजिक जीवन के पतन की इस कहानी को याद करना मौजूदा सत्ताधीशों के लिए बेहद जरूरी है...कहने की जरूरत नहीं कि मौजूदा सरकार जन जन तक अपनी पहचान बना चुकी और लोकतंत्र की ताकत बन चुकी टीवी पत्रकारिता पर अंकुश लगाने की ऐतिहासिक भूल की और बढ़ रही है....मीडिया को काबू करने की ताजा कोशिश का हस्र भी तय है...बात हल्के ढंग से कह रहा हूं पर ह्ल्की बात नहीं.....जब जब प्यार पर पहरा हुआ है प्यार और भी गहरा हुआ है....मौजूदा शासन को ये गाना गुनगुनाना पड़ सकता है...
कुमार भवेश चंद्र, एसोसिएट इक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर, न्यूज 24
सरकार मीडिया पर अंकुश लगाने की बात कर रही है। उसके रुल्स एण्ड रेगुलेशन तय करने की बात की जा रही है, और सही शब्दों में कहा जाए तो उसकी धार को कुंद करने की कोशिश हो रही है। सरकार से अगर हम सवाल करें कि ऐसा करके क्या वो लोगों की आवाज को ,उनकी भावनाओं को दबाना चाहती है? समाज में जो कुछ भी हो रहा है क्या उस तस्वीर को धुंधला करना चाहती है? या सरकारी तन्त्र (जिसमें पहले से ही भ्रष्टाचार का दीमक लगा हुआ है) उसे ढकने की कोशिश करना चाहती है? सच तो यह है कि अगर कलम की धार कुंद हो गई, लेखनी में जंग लग गई, तो सियासत इस समाज को खोखला करती जाएगी और इस बात का हमें जब एहसास होगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
नेता और अफसर बेचैन हैं, क्योंकि कैमरे का फोकस बहुत शार्प हो गया है, इसलिए इस कैमरे के जरिए लोग जो घर बैठे देख रहे हैं उसे आउट-आफ-फोकस करना जरूरी है। कोई ये सवाल न उछाले कि मेंढर के जंगलों में छिपे बैठे आतंकवादियों को खदेड़ने का युद्ध जैसा अभियान एक मजाक बनकर क्यों रह गया ? भारी-भरकम घेरेबंदी और आठ दिन तक गोलाबारी के बावजूद आतंकवादी भाग गए और हम ये तक नहीं जान सके कि जंगल में छिपे इन आतंकवादियों की तादाद कतनी थी ? सेंसरशिप इसलिए ताकि लोगों को ये सवाल परेशान न करे कि मुंबई हमले के दौरान चंद आतंकवादियों पर काबू पाने में देश की सबसे काबिल फोर्स को 60 घंटे का वक्त क्यों लग गया ? सेंसरशिप इसलिए क्योंकि पाकिस्तान से आतंकवादियों को सौंपने की मांग करती सरकार का बनावटी चेहरा तो पर्दे पर चमके, लेकिन ये सवाल धुंध में खो जाए कि आतंकवादी अगर मिल भी जाएं तो आप कर क्या लोगे ? वही, जो आपने सरकारी मेहमानों अफजल और अबु-सलेम के साथ किया है ?
देश की जनता तो बहुत भोली है, बड़े से बड़े गुनाह को भी भूल जाती है और जुट जाती है सत्ता के लाल गलीचे की धूल को साफ करने में। लेकिन टेलीविजन लोगों को कुछ भी भूलने नहीं दे रहा है, वो बार-बार याद दिलाता है- संसद पर हमला, दिल्ली-मुंबई समेत देश के कई शहरों में हुए सिलसिलेवार बम धमाके, बम धमाकों के बावजूद देश के केंद्रीय गृहमंत्री की कायम रही फैशन की समझ, बार-बार चूकती खुफिया एजेंसियां और भगवान के भरोसे छोड़ दिए गए लोग।
ये तमाम सवाल आम जनता और हमारे गणतंत्र की हिफाजत के लिए भले ही जरूरी हों, लेकिन सुविधाभोगी नेताओं और स्वार्थी अधिकारियों के हित में नहीं हैं। इसलिए इस तबके के ‘ देशहित ’ में इन सवालों की अकालमौत जरूरी है। इंदिराजी ने जब इमरजेंसी लगाई थी को प्रेस सेंसरशिप के विरोध में अखबारों के संपादकीय खाली छोड़ दिए गए थे। सवाल ये कि अब हमारा विरोध कैसा होगा ?
नेता और अफसर बेचैन हैं, क्योंकि कैमरे का फोकस बहुत शार्प हो गया है, इसलिए इस कैमरे के जरिए लोग जो घर बैठे देख रहे हैं उसे आउट-आफ-फोकस करना जरूरी है। कोई ये सवाल न उछाले कि मेंढर के जंगलों में छिपे बैठे आतंकवादियों को खदेड़ने का युद्ध जैसा अभियान एक मजाक बनकर क्यों रह गया ? भारी-भरकम घेरेबंदी और आठ दिन तक गोलाबारी के बावजूद आतंकवादी भाग गए और हम ये तक नहीं जान सके कि जंगल में छिपे इन आतंकवादियों की तादाद कतनी थी ? सेंसरशिप इसलिए ताकि लोगों को ये सवाल परेशान न करे कि मुंबई हमले के दौरान चंद आतंकवादियों पर काबू पाने में देश की सबसे काबिल फोर्स को 60 घंटे का वक्त क्यों लग गया ? सेंसरशिप इसलिए क्योंकि पाकिस्तान से आतंकवादियों को सौंपने की मांग करती सरकार का बनावटी चेहरा तो पर्दे पर चमके, लेकिन ये सवाल धुंध में खो जाए कि आतंकवादी अगर मिल भी जाएं तो आप कर क्या लोगे ? वही, जो आपने सरकारी मेहमानों अफजल और अबु-सलेम के साथ किया है ?
देश की जनता तो बहुत भोली है, बड़े से बड़े गुनाह को भी भूल जाती है और जुट जाती है सत्ता के लाल गलीचे की धूल को साफ करने में। लेकिन टेलीविजन लोगों को कुछ भी भूलने नहीं दे रहा है, वो बार-बार याद दिलाता है- संसद पर हमला, दिल्ली-मुंबई समेत देश के कई शहरों में हुए सिलसिलेवार बम धमाके, बम धमाकों के बावजूद देश के केंद्रीय गृहमंत्री की कायम रही फैशन की समझ, बार-बार चूकती खुफिया एजेंसियां और भगवान के भरोसे छोड़ दिए गए लोग।
ये तमाम सवाल आम जनता और हमारे गणतंत्र की हिफाजत के लिए भले ही जरूरी हों, लेकिन सुविधाभोगी नेताओं और स्वार्थी अधिकारियों के हित में नहीं हैं। इसलिए इस तबके के ‘ देशहित ’ में इन सवालों की अकालमौत जरूरी है। इंदिराजी ने जब इमरजेंसी लगाई थी तो प्रेस सेंसरशिप के विरोध में अखबारों के संपादकीय खाली छोड़ दिए गए थे। सवाल ये कि अब हमारा विरोध कैसा होगा ?
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