सोमवार, 12 जनवरी 2009
चौथे खंभे को धराशायी करने की साजिशः सुप्रिय प्रसाद
लोकतंत्र के सबसे चौथे खंभे को उखाड़ने की कोशिशें सिर उठा रही हैं। इस खंभे को कमजोर करने की कोशिश कोई दुश्मन नहीं कर रहा है। मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप थोपकर केंद्र सरकार उसे नख दंतविहीन बना देना चाहती है। अपने हक की लड़ाई लड़ रही जनता पर अगर सरकारी दमन हुआ और उसके फुटेज आपके पास हैं तो उसे आप दिखा नहीं पाएंगे। मुंबई पर हुए हमलों की कवरेज का बहाना बनाकर सरकार अपना छिपा एजेंडा लागू करना चाहती है। वो न्यूज चैनलों को अपना गुलाम बनाना चाहती है। अगर सरकार अपनी मंशा में कामयाब हो गई तो कोई दावा नहीं कर पाएगा कि सच दिखाते हैं हम। क्योंकि सच वही होगा, जो सरकार कहेगी। आपके फुटेज धरे के धरे रह जाएंगे। दंगा हो या आतंकवादी हमला। इमरजेंसी की हालत में सरकारी मशीनरी ज्यादातर मूक दर्शक बनी रहती है। सरकार चाहती है कि मीडिया भी उसी तरह मूक दर्शक बनी रहे। हाथ पर हाथ धरे तमाशा देखती रहे। ये वक्त हाथ पर हाथ धरकर बैठने का नहीं है। मीडिया पर सेंसरशिप लगाने की इस साजिश को नाकाम करने का वक्त है। (सुप्रिय प्रसाद न्यूज 24 चैनल के न्यूज डायरेक्टर हैं। )
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2 टिप्पणियां:
जब-जब प्यार पर पहरा हुआ है ......
मैंने स्कूल के दिनों में पढ़ा था...लोकतंत्र के तीन खंभे होते हैं...विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका..बाद के दिनों में इस जानकारी में संशोधन हुआ और हमें पता चला कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है और इत्तेफाक से बाद में मैं खुद भी मीडिया से जुड़कर लोकतंत्र के चौथे खंभे का हिस्सा बन गया..लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने में इन सभी खंभों का बराबर का योगदान है.....विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस यानी मीडिया लोकतंत्र की चार संताने हैं ...लोकतंत्र के प्रति सबकी बराबर की जवाबदेही और जिम्मेदारी है और इनमें से कोई भी बड़ा या छोटा नहीं है....इन सभी के लिए यदि लोकतंत्र पिता समान है तो कानून इनकी मां है.... इन्हें नियंत्रित करना भी लोकतंत्र (पिता) और कानून (मां) की जिम्मेदारी है...लेकिन पिछले कुछ समय से लोकतंत्र के पहले खंभे ने एक बार फिर से खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरुआ घोषित करने की कोशिशें तेज कर दी है.. ये पहला मौका नहीं जब ऐसी कोशिश हो रही है...इससे पहले भी सात-आठ के दशक में बिहार के तब के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने अखबारों पर अंकुश लगाने की इसी तरह ऐसी कोशिश की थी और इतिहास जानता है उन्हें मुंह की खानी पड़ी थी। उन्हें जब तक मीडिया और अखबारों की ताकत का अहसास हुआ तब तक काफी देर हो चुकी थी और इस लड़ाई में हार के बाद उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी अच्छे दिन नहीं देखे। मीडिया ने ही नहीं लोगों ने भी उन्हें अपनी नजरों से उतार दिया.. हालांकि बाद के दिनों में उन्होंने एक अखबार के प्रकाशन को में पिछले दरवाजे से सहयोग कर अपनी पुरानी ताकत वापस पाने की कोशिश की लेकिन ना तो वो अखबार जनता का हमदर्द बन पाया और ना ही जगन्नाथ मिश्र को जनता ने अपना हमदर्द बनाया ।
जगन्नाथ मिश्र के राजनीतिक और सामाजिक जीवन के पतन की इस कहानी को याद करना मौजूदा सत्ताधीशों के लिए बेहद जरूरी है...कहने की जरूरत नहीं कि मौजूदा सरकार जन जन तक अपनी पहचान बना चुकी और लोकतंत्र की ताकत बन चुकी टीवी पत्रकारिता पर अंकुश लगाने की ऐतिहासिक भूल की ओर बढ़ रही है....मीडिया को काबू करने की ताजा कोशिश का हस्र भी तय है...बात हल्के ढंग से कह रहा हूं पर ह्ल्की बात नहीं.....जब जब प्यार पर पहरा हुआ है प्यार और भी गहरा हुआ है....मौजूदा शासन को ये गाना गुनगुनाना पड़ सकता है...
कुमार भवेश चंद्र, एसोसिएट इक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर, न्यूज 24
दरअसल सरकार लोकतंत्र का मजाक उड़ाकर उसका दूरदर्शीकरण करना चाहती है। जिस तरह दूरदर्शन उसके इशारे पर हिचकोले खाते चलती है...वैसा ही हाल सरकार लोकतंत्र का करना चाहती है।
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